पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/१७३

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आठवाँ प्रभाव भावार्थ-रामजी की चतुरंगिनी सेना के जमावड़े में राजाओं की गणना कौन कर सकता है। उस सेना में इतनी ऊंची पताकाएं हैं कि सूर्य के घोड़ों के पैर उनसे उलझते हैं। पैर उलझने से उन पताकाओं में लगे हुए भौतियों के झब्बे टूट जाते हैं और मोती पृथ्वी पर गिरते हैं। उनकी समता कषियों ने यों कही है कि मानो सूर्य के घोड़ों के मुखफेन के बूंद पकते हैं अथवा प्रसन्न होकर राजश्री मंगल सूचन हेत धान की स्वीलें बरसाती है। (पुनः) मूल-नाद पूरि, धूरिथरि, तुरि बन, चूरि गिरि, सोखि सोखि जल भूरि, भूरिथल गाथ की। केसोदास आसपास ठौर ठौर राखि जन, तिनकी संपति सब आपनही साथ की। उन्नत नवाय, नत उन्नत बनाय भूप, शत्रुन की जीविका सुमित्रन के हाथ की । मुद्रित समुद्र सात, मुद्रा निज मुद्रित के, आई दस दिसि जीति सेना रधुनाथ की ॥ २४ ॥ (नोट) हमें तो यह छैद संरलं ही जंचता है। ज़रूरत हो तो केशवकौमुदी भाग २, प्रकाश ३५ वें के छंद नं. १० में टीका देख लीजिये। (हय वर्णन) मूल-तरल, तताई, तेजगति, मुख सुख, लघुदिन देखि । देश, सुबेश, सुलक्षणै, बरनहु बाजि. बिशेखि ॥ २५ ॥