पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/१८३

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आठवां प्रभाव १७३ जब तुम नहीं मानीं, तो अब हम भी न बोलेंगे) । नायक का रूठकर चलजाना था कि नायिका के हृदय में पुनः प्रेम की उमंग आई, तब उसले एक सखी को नायक को मना लाने को भेजा। वह सखी नायक के पास जाकर लायक से कहती है कि पहले मैने ऐली २ बातें कहकर उसे समझाया था। अंत में कहा था कि "फेरि मोहि तू निहोरिहै"। वही बात हुई अाखिर मुझे अब तुम्हें मनाने आना पड़ा---( मैंने जो बातें कहीं थी वे ये हैं) भावार्थ- "हे कमल से बढ़ कर मुख वाली ! मैंने बार बार तुझे मना किया कि तू मान न किया कर, मान छोड़ दे, आरसी लेकर मुख देख (तेरे मुख पर अभी मान का आभास है) आखिर तू फिर नायक के प्रेम में डूबैगी । ( मैंने यह भी कहा था कि ) नायक की शोभा ही को देखने के बहाने एक बार उसकी ओर ताक दे, सो भी तू नहीं मानती। सब सखियां कह कह कर थक गई, अब इसमें किसी का दोष नहीं, तेरे ही सुख का उपाय करती हैं, पर तू नहीं मानती, यह अच्छा नहीं करती, अब तुझे नायक ही को सौगंद है, तू मान मत छोड़ना। अभी तो नायक मनाता है पर तू उसका मनाना नहीं मानती, फिर प्रेम की उमंग में तुझे सुझसे अर्ज करना पड़ेगा कि नायक को मना ला"। (ये सब बातें मैंने उससे कही थीं) आखिर नतीजा वही हुअा कि अंत में मुझे तुम्हें मनाने आना ही पड़ा ( यह बात ध्वनि से निकलती है) (विशेष) यही ध्वनि न समझ कर अन्य टीकाकार इसकी टीका लिखते समय गलती कर गये है और यह समझ बैठे हैं जिसमें "अखी का बचन नायिका प्रति है। ऐसा नहीं