पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/१८५

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प्रिया-प्रकाश चातीक ज्यों पिउ पाउ स्टै, चढ़ी ताप तरंगिनि ज्यों तन गाढ़ी। केशव वाकी दशा सुनि हौं अब, आगि बिना अंग अंगन डाढी ॥ ४२ ॥ शब्दार्थ-मेह-वर्षा । उसाँस लंबी स्वांस लेना। बिसा- सिनि=विश्वाशनी (विश्व अशनी) संसार को खाने वाली अर्थात् मृत्यु । गतिकाढ़ी गति में चपला से कहीं आगे निकल जाने वाली, अति चंचल तरंगिनी । गाढ़ी = अतिप्रचंड। हौं-मैं । डाढ़ी जल गई। नोट-किसी विरहिनी की दशा कोई सखी किसी सखी प्रति कहती है। भावार्थ:-हे सखी क्या कहूं, मुझे तो सन्देह होता है कि उसके आँसू हैं या वर्षा है ( रो रो कर वह धर्षा काल बनाये हुए है) उसाँसो के साथ ही साथ मृत्यु रूपा रात्रि भी (उसके लिये) बढ़ गयी है। उसकी हँसी हंसिनी की तरह उड़ गई है। (जैसे वर्षा काल में हंस हंसिनी कहीं चले जाते हैं वैसे ही अब उसमें हंसी नहीं रही ) और नींद तो बिजली से भी बढ़ कर चंचला हो रही है (कभी क्षण मात्र के लिये पाती है ) वह चातकी की तरह पी पी रटती है और उसके तन में प्रचंड ताप ( वर्षा की) नदी की तरह चढ़ी हुई है। उसकी दशा सुनकर मेरे अंग अंग बिना अग्नि के ही जल रहे हैं (तो उसकी क्या दशा-होगी तू अनुमान कर ले) नोट-पीउ पीउ रटती है' इन शब्दों से लक्षित होता है कि उसका प्रियतम कहीं दूरस्थ है । अतः प्रवास विरह है।