पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/१८९

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१८० प्रिया प्रकाश (यथा) मूल-केशोदास प्रथमहिं उपजत भय भीरु, रोष रुचि स्वेद देह कंप न गहत हैं। प्राण प्रिय बाजी कृत वारन पदाति क्रम, विविध शबद द्विज दानहि लहत हैं । कलित कृपा न कर सकति सुमान बान, सजि सजि करज प्रहारन सहत हैं। भूषन सुदेश हार दृषन सकल होत, सखि न सुरति रीती, समर कहत हैं ॥४७॥ (नोट)--कोई प्रौढ़ा परकिया नायिका अपनी अंतरंग सखी से रति समय की कथा कह रही थी। समाप्त होते होते दूसरी बहिरंगा सखी ने आकर पूछा कि क्या रति कथा सुना रही हो ? सब वह कहती है कि नहीं मैं तो समर कथा कहती हूं। इसमें छेकापन्हुति अलंकार है। शब्दार्थ-प्राणप्रिय नायक। बाजीकृत-वाजी करण स्तंभ- नादि ओषध खाये हुए। वारन मना करने पर, नाही नाही करते रहने पर भी। पदातिक्रम= पदों का अतिक्रमणा करता है, पैरों को उठाकर अपने अंघों पर रखता है। द्विजदान- दासों से अधर खंडनादि । कलित कृपान कर - हाथों में दया नहीं रहती (कुच मर्दनादिक करता है)। मान शान -मान की रक्षा करता है अर्थात् प्रशंसा करता जाता मख । सुदेश - सुन्दर, बजने वाले। दूषन - बुरे लगते हैं। (सुरति पक्ष) भावार्थ-पहले तो भीरता से भय पैदा होता है (परकीयत्व । करज .