पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/२०५

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प्रिया-प्रकाश भावार्थ-कार्य का साधक कारण अपूर्ण हो पर कार्य पूर्ण सिद्ध हो। (TYT) मूल-सांप को कंकन, माल कपाल, जटान को जूट, रही जटि श्रांतैं। खाल पुरानी, पुरानोइ बैल, सु और की और कहै विष मातें। पारवती पति संपति देखि, कहै यह केशव संभ्रम ताते । आपुन मांगत भीख भिखारिन देत दई मुँह माँगी कहांते॥२५॥ शब्दार्थ-रही जटि अांत = भूख' से बातें पेट में चिपक रही हैं। खाल = गजचर्म । विष माते विष खाये, मतवाले से बने रहते हैं। पारवतीपति-शिव । संभ्रम भारी भ्रम है। आपुन आप खुद । दई = हे दई । मुंहमांगी-मनोवांछित संपत्ति। भावार्थ -सरल और स्पष्ट है। (व्याख्या)-शिव के घर में जो सम्पत्ति है वह अपूर्ण (अप- र्थात ) है, स्वयं शिव भी मंगन और भूखे हैं, पर याचको को बांछित संपत्ति देते हैं। (पुनः) मूल-तमोगुण ओप तन ओपित, विषम नैन, लोकनि बिलोप करें, कोप के निकेत हैं । मुख बिष भरे, विषधर धरे, मुंडमाल, भूषित बिभूति, भूत प्रेतान समेत हैं। पातक पिता के युत, पातकी ही को तिलक, भावै गीत काम ही को, कामिनि के हेत हैं।