पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/२०८

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नवा प्रभाव समझा कर पढ़ाती हैं ( जैसे कोई ब्याही प्रौढ़ा पढ़ाती है)। गोरी गोरी हैं, भोली भाली हैं, थोडी उमर की हैं, वे दौड़कर छिपे छिपे कृष्ण को देख पाई जैसे कोई देवता छिपे छिपे सबको देखता है पर उसे कोई नहीं देख सकता । तेरी कसम है, विना प्रत्यंचा की भौंह कमान तानकर, कुटिल कटाक्ष के बाणों से-आश्चर्य है कि वे इतनी अभ्यस्त हैं-कि मेरे मित्र कृष्ण के अदृश्यमान मन को, पीठ दिये हुए मारती हैं, पर कोई भी निशाना नहीं चूकती। ( ब्याख्या) अल्पषय कुमारिका प्रौढ़ा का काम करती है। बिना प्रत्यंचा की कमान, बाण भी टेढ़ा, अदृश्य मन का निशाना, और पीठ देकर निशाना लगाना, तिस पर भी पूर्ण सिद्धि। (नोट)-अनुमान होता है कि बिहारी ने नीचे लिखा दोहा इसी छंद को देखकर लिखा है। "तिय कित कमनैती पढ़ी, बिनु जिहि भौंह कमान । चल चित बेझो चुकति नहिं, बंक बिलोकनि बान"॥ बिहारी ने कहा तो, पर केशव की उक्ति इस हेत बढ़ी चढ़ी है कि "पीठि दै दै मारतीं' हैं, जिसका ज़िक्र बिहारी नहीं कर सके। (पुनः) मूल-चाँचि न आवै, लिखि कछू , जानत छांह न धाम । अर्थ, सुनारी, बैदई, करि जानत पतिराम ॥ २९ ॥ शब्दार्थ-लिखना-सोनार लोग जिस औज़ार से नकासी का काम करते हैं उसे 'कलम' कहते हैं, और नकासी के लिये