पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/२११

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२०२ प्रिया-प्रकाश जाता है ( द्रवित हो जाता है प्रेम से प्रभावित होता है) अर्थात् तेरा सौन्दर्य अतुलनीय है। ( ब्याख्या)-यहां सौन्दर्य पर टोना की भावना की गई है। 'मेरे जान' शब्द उत्प्रेक्षा के बाचक हैं। (पुनः) मूल-अंक न, शशंक न, पयोधि हू को पंक न सु- अंजन न रंजित रजनि निज नारी को। नाहिने झलक झलकति तमपान की, न छिति छांह छाई, छिद्र नाहीं सुखकारी की। केशव कृपानिधान देखिये बिराजमान, मानिये प्रमान राम बैन बनचारी को। लागति है जाय कंठ नाग दिगपालन के, मेरे जान सोई कृच्छू कीरति तिहारी को ॥ ३२॥ शब्दार्थ-अंक = निशानी, दाग। शर्शक = मृग का दार। पंक = कीचड़ । रजनि-रात्रि । छिति = पृथ्वी । छिद्र दोष, पाप। । सुखकारी- चंद्रमा। बनचारी=बन्दर । दिग्गज । दिगपाल =इन्द्र, वरुण कुबेरादि अष्ट दिगपाल । कृच्छ = दुःख, इर्षाजनित दुःख । (विशेष)-चंद्र कलंक पर हनुमान जी की उकि श्रीराम प्रति। भावार्थ-यह न तो दाग है, न मृग का चिन्ह है, न समुद्र का कीचड़ लगा है, न मिज स्त्री रात्रि के काजल से रंगा है। चंद्रमा ने जो अंधकार को पान कर लिया है यह उसकी