पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/२२१

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दसवाँ प्रभाष 'भावै सो करहु' तो उदास भाव प्राणनाथ, 'साथलै कैसे लोक लाज बहनो। केशोराय की सौं तुम सुनहु छवीले लाल, चलेही बनत जोपै नाही राजा रहनो। तैसियै सिखाओ सीख तुमही सुजान पिय, तुमहिं चलत मोहि जैसो कछू कहनो ॥ २० ॥ भावार्थ-(नायिका बचन मायक प्रति)-तुम बिदा मांगते हो, यदि मैं कहूं कि 'न जाश्रो यहीं रहो तो इन बचनों से मेरी प्रभुता प्रगट होगी (जो उचित नहीं) यदि कहूं कि 'चले जाओ तो अप्रेम सूचित होता है ( जिसे मैं सहन नहीं कर सकती )। जो कहूं कि जैसा मन माने वैसा करो' तो इन बचनों से आपके प्रति मेरी उदासीनता प्रगट होती है ( यह यात तो गैर से कही जाती है, तुम तो मेरे प्राणनाथ हो) यदि कहूं कि 'मुझे साथ ले चलिये तो यह बात हो कैसे सकती है, क्योंकि लोकलज्जा का निर्वाह करना है। हे नाथ ! (राजायदि आपको श्रव यहां नहीं रहना और जानेही से काम बनता है, तो श्राप सुजान हैं श्रापही सिखाइये कि आपके जाते समय मुझे क्या कहना चाहिये। (ब्याख्या)-नायिका अपने धर्म का चितवन करती है, यह वार्ता सुनकर नायक अपना गमन रोक देता है-यही धर्मा- क्षेप है। -उपायाक्षेप) मूल-कौनहु एक उपाय कहि, रोकै प्रिय प्रस्थान । तासों कहत उपाय. कवि, केशवदास सुजान ।। २१ ।