पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/२३२

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२२४ प्रिया प्रकाश भावार्थ-पूस मास में शीतल जल, स्थल, वन और शीतल भोजन नहीं रुचते । आकाश और जमीन शीतलता के कारण अति कष्टदायक हो जाते हैं। राजा और रंक सब छोड़ कर, तैल, रुई, पान, सूर्य (धाम ) अग्नि, और नवीन स्त्री को ही अधिक सेवन करते हैं। दिन छोटे होते हैं, और रमनार्थ रात्रि बड़ी होती है, रूठने में बड़ा दुःख होता है । मन, बचन, कर्म से इन बातों पर विचार करके, हे कंत! पूस में सफर न करना चाहिये। (माध वर्णन) मूल-बन, उपबन, केकी, कपोत, कोकिल कल बोलत । केशव भूले भँवर भरे बहु भायन डोलत ॥ मृगमद, मलय, कपूरधूर, धूसरित दसौ दिसि । ताल, मृदंग, उपंग सुनत संगीत गीत निसि ॥ खेलत बसंत सतत सुघर संत असंत अनंत गति । घर नाह न छोडिय माह में जो मन माहि सनेह मति॥३४॥ शब्दार्थ-केकी=मोर । भरे बहु भायन = बहुत भावों से भरे। डोलतः - इधर उधर घूमते हैं । मृगमद = कस्तूरी । मलय = चंदन। धूसरित = पूर्ण, रंजित। ताल = मजीरा । उपंग - मसतरंग । सुधर प्रवीण । संत श्रसंत = भले बुरे लोग । अनंत गति = अनेक प्रकार से। भावार्थ-सरल और स्पष्ट है। (फागुन वर्णन) भून-लोक लाज तजि राज रंक निरसंक बिराजत । ओइ भावत सोइ कहत करत पुनि हासन लाजत ।।