पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/२३५

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ग्यारहवाँ प्रभाव ऊपर करै । शत्रु की दया का पात्र बनना बीर के लिये इष्ट नही । चित्त न सालई = जो चित को दुखित न किये रहै। भावार्थी यदि कोई जन बिना अपना गुण दिखाये किसी से कुछ मांगे, तो ऐसी याचना को शिकार है, यह गुण धिकार योग्य है जिसे देख सुनकर लोग न रोके। उस रीझ को धिकार है जो बकसीस न दिलवावे, वह बकसीस धिक है जिसे देने समय क्रोध श्राजाय, वह देना विक है जो सत्य के लिये न हो, वह सत्य धिक है जिसे धर्म न भावै, वह धर्म धिक है जिसमें दया न हो, वह दया धिक है जो हमारा शत्रु हमपर करै, वह शत्रु धिक है जो चित्त में स्वटकता न रहे, यह चित्त धिक है जिसमें उदार मति न हो, वह मति घिसार योग्य है जिसमें ज्ञान न हो, वह शान धिक है जिसमें हरिभक्ति न हो। (पुनः) मूल-सोमति सो न सभा जहँ वृद्ध न, वृद्ध न ते जु पढ़े कळु नाहीं । ते न पढ़े जिन साधुन साधित दोह दया न दिपै जिय माहीं ।। सो न दया जु न धर्म धरै धर, धर्म न सो जहँ दान वृथाहीं । दान न सो जहँ सांच न केशव, सांच न सो जुबसै छल छाहीं॥३॥ शब्दार्थ-ते न पढ़े जियमाहीं = ( अन्वय) ते पढ़ेन (शोभत) जिन जिय माही साधुन साधित दीह दया न दिपै । (अर्थ)-- वे पढ़े लोग शोभा नहीं पाते जिनके हृदय साधु-जन साधित दीह दया दीप्तमान न हो । साधुन साधित - साधुओं द्वारा की हुई, जैसी साधु लोग किया करते हैं। भावार्थ-सरल और स्पष्ट है।