पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/२४७

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ग्यारहवाँ प्रभाव १०-(आशिषालंकार वर्णन ) मूल-मातु, पिता, गुरु, देव, मुनि कहत जु कछु सुख पाय । ताही सों सब कहत हैं आशिष कवि कविराय ॥२४॥ (यथा) मूल-मलय मिलित बास, कुंकुमकलित, युत जावक, कुसुम नख पूजित, ललित कर । जटित जराय की जंजीर बीच नील मणि, लागि रहे लोकन के नैन मानो मनहर ।। हयपर, गयपर, पलिका सुपीठ पर, अरि उर पर, अवनीशन के शीश पर । चिरु चिरु सोडौ रामचंद्र के चरण युग, दीयो करै केशोदास आशिष अशेष नर ॥२॥ शब्दार्थ-करकिरण जंजीर = पग भूरण विशेष जिसे तोड़ा कहते हैं। मनहर = ( नील मणि का विशेषण) मनोहर । पलिका- पलंग। सुपीठ = सिंहासन । अशेर = सब, समस्त । 'कुसुमपूजित' नख का विशेषण है। भावार्थ-चंदन की सुगंध से युक्त, केसर और महावर से सो हुए, जिनके नख फूलो से पूजित और सुन्दर किरण वाले है। उन पैरों में जड़ाऊ तोड़े हैं जिनसे मनोहर नीलम जड़े हैं, वे ऐसे जान पड़ते हैं मानो लोगों के नेत्र है। केशवदास कहते हैं कि सभी मनुष्य ऐसा आशिर्वाद देते हैं कि राम जी के ऐसे चरण युगल चिरकाल तक हाथी, घोड़े, पलंग, आसन, जात्रु हदय और, राजशिरों पर सोभित होते रहैं।