पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/२४८

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प्रिया-प्रकाश (पुनः) मूल-होय धौं कोऊ चराचर मध्य में उत्तम जाति अनुत्तम ही को। किन्नर के नर नारि विचारि कि बास करै थल के जल ही को। अंगी अनंग कि मूड़ अमूह उदास अमीत कि मीत सही को। सो अथवै कबहूं जनि केशब जाके उदोत उदौ सवही को ॥२६॥ शब्दार्थ-अनुत्तम = निकृष्ट । असीत= शत्रु । सही को= सत्य- वादियों का । अथवै मरे, ना हो । उदोत = उदय । उदो-उदय । भावार्थ -सरल और स्पष्ट है। (नोट)-यह छंद हस्त लिखित प्रति में नहीं है। ११-(प्रेमालंकार वर्णन) मूल - कपट निपट मिटि जाय जहँ, उपजै पूरण क्षेम । ताही सों सब कहत हैं, केशव उत्तम प्रेम ॥ २७॥ भावार्थ-किसी मनोभाव का कपट रहित वर्शन ही प्रेमालंकार कहलाता है। (नोट)-केशव ने उदाहरण में 'प्रेमसाब' काही वर्णन किया है। इससे यह कदापि न समझना चाहिये कि शेष वर्णन ही में प्रेमालंकार होगा, वरन् यह जानना चाहिये कि किसी भी मनोभाव का सत्य और यथार्थ वर्णन ही प्रेमालंकार है। हाल के आचार्य इस नाम का कोई अलंकार नहीं मानते। (यथा) मूल-कछु बात सुनै सपनेहु वियोग की होन चहै दुइटूक हियो। मिाले खेलिय जा सँग बालक तें, काहि तासों अबोलो क्यों जात कियो।