(धोरिया ) और शुद्ध सुरों से युक्त है।
(विशेष) इस छंद में श्लेष से पुष्ट उपमालंकार है।
इसको केशव जी ने 'नियमोफमा' लिखा है--- देखो प्रभाव १४
छंद नं० २१, २२) यही अलंकार आगे के अनेक छंदों में है।
मूल-सत्या रायप्रवीन युन, सुरतः रु सुरतरु गेह ।
इन्द्रजीत तासें बधे, केशवदास सनेह ॥ ४६॥
शब्दार्थ-सत्या सत्यप्रामा। सुरत - प्रेम। और ।
सुरतरु = कल्पवृक्ष । (२) सुरों का वृक्ष अर्थात् बीणा
इन्द्रजीत ( १ ) राजा इन्द्रजीत (२) श्रीकृष्ण ।
भाषाय--प्रवीणराय ( पातुर ) सत्यभामा समान है, क्योंकि
जैसे सत्यभामा में कृष्णप्रति सुंदर प्रेम था वैसे ही रायप्रवीण
में भी निज पति प्रतिसुदर प्रेम है और जैसे सत्यभामा के कर
में पारिजात वृक्ष था वैसे ही इसके घर में भी सुरों का वृक्ष
अर्थात् जिससे सातो सुर निकलते हैं ऐसी बीगा है। और जैस
सत्यभामा पर श्रीकृष्ण जी अनुरक्त थे वैसे ही राजा इन्द्रजीत
भी इससे बंधे हैं अर्थात् अनुरक्त हैं। अतः केशचदम्ल
कहते हैं कि राय प्रबीण सत्यभामा सी है।
[विशेष --किसी समय सत्यभामा के कहने से कृष्ण जी
इन्द्र को जीत कर स्वर्ग से पारिजात वृक्ष लाये थे और उसे
सत्यभामा के आंगन में स्थापित किया था।
मूल-नरी किन्नरी आसुरी. सुरी रहत सिरनाय ।
नवरस नवधा भक्ति, स्यों राजति नवरंगराय ॥४७॥
शब्दार्थ-नरी नरपत्नी । सुरी=सुर पत्नी । नवरस-
नधीन प्रेम । स्यों सहित । नवधा भक्ति-(१) श्रवण (२)
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प्रिया-प्रकाश