पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/२६७

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प्रिया प्रकाश . शब्दार्थ-रजै रज = (१) धूल से अपने को रंगता है (२) रजो गुण से अर्थात् बीरता से अपने को रंगता है। अरुणा- लार - रक्त । सरतु है =जाता है। मुख भूषण-(१) मुख के भूषण अर्थान, नथ, 'वेलर, विन्दी, वन्दी, टीका लगादि (२) मुख्य और भूषणवत योद्धा ! अरतु है = हट करता है। करवाल = ( सं पुं०) तलवार, तेगा। भावार्थ-हे राजा चंद्रसेन जी ! विशाल रणभूमि रूपी आँगन में तुम्हारा तेगा बालक्रीड़ा सी करता है। जैसे बालक अपने अंग को धूल से धूसरित कर लेता है वैसे ही तुम्हारा तेगा रजोगुण से अपने अंग को रंग लेता है अर्थात् राजपूतीशान ( बीरता ) उसमें आ जाती है। जैसे बालक के मुँह से लार टपकती है वैसेही।इसके मुँह से लाल लाल लार टपकती है ( खून टपकता है) जैसे बालक एक की गोद से दूसरे की गोद में जाता है वैसेही यह तेगा एक शत्रु की गोद से दूसरे के अंक में जाता है ( एक शत्रु के बाद दूसरे को काटता है) जैसे बालक स्त्रियों के मुखभूषणों को पकड़ता है वैसेही यह तेगा किलक किलक कर सेना सुन्दरी के मुख्य २ और भूषण रूपी बीरों को पकड़ता है। जैसे बालक खेलौना तोड़ता है वैसे यह बडे मज़बूत गढ़ों को तोड़ देता है (जीत लेता है) जैसे बालक चंद्रमा पकड़ने को हठ करता है वैसेही यह तेगा जय और यशरूपी चंद्रमा को लेने के लिये हठ करता है। (व्याख्या)-इस छंद में रज, मुख भूषण, और अंगन शब्दों के दो भिन्न भिन्न अर्थ लिये गये हैं और करवाल की समता बालक से की गई है, अतः भिन्न पद श्लेष या उपमा श्लेष अलंकार है।