पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/२७७

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प्रिया-प्रकाश १४-(लेशालंकार) मूल-चतुराई के लेश ते, चतुर न समझ लेश । वरनत कवि के बिद सबै ताको केशव लेश ॥४७॥ भावार्थ---कोई घटना वा कोई दशा चतुराई से किसी क्रिया द्वारा छिपाना जिससे चतुर आदमी भी न समझ सके- यही 'ले.स' है। हाल के प्राचार्य इसे 'युकि' अलंकार कहते हैं। ( यया) मून-खेलत हे हरि बागे बने जहँ बैठी प्रिया रति ते अति लोनी। केराव कैसे हुँ पाठिमें दाठिपरी कुच कुंकुम की रुचि रौनी ।। मातु समीप दुराई भले तिहि सात्विक भावन की गति होनी । धूरि कपूर की परि विलोचन संघ सरोरुह ओदि ओहान ॥४॥ (विशेष )- इस छद में घर्णित घटना कमी हो चुक्षी है कि प्रणय कलह में कृष्ण ने नायिका को पीठ दी है और नायिका में प्रेमवश नायक को पीछे ही से शालिगन करके जबरदस्ती भूख चूम लिया है। ऐसा करने में नायिका के कुचों पर लगी केसर नायक के घागे मैं पीडकी और लगाई है। उस केसर के चिन्ह अबतक वारो में मौजूद हैं। शब्दार्थ-खेलत हे = खेलते थे। वागे यने धागा पहने बने मने। लोनी लावण्यमयी, अति सुन्दर। कैसा = किसी प्रकार । रोनी = रमणीय । चिचपक । सात्मिक भावन की पति होनी = सात्विक भावों का होना अर्थात् अाथ, कंप और रोम रउना का स्खेद पाना । सरोरह -- काल । भालोनी - ओढ़नी, उपरना।