पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/२७८

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ग्यारहवाँ प्रभाव २७१ भावा-कृष्णजी बागा पहने बने ठने वही खेल रहे थे जहां रति से भी अति सुदर भियतमा गुरुजनों में बैठी थी। किसी प्रकार नायिका की दृष्टि ( पूर्व घटना में कहीं हुई ) निज कुन्छ कुंकुम की रमणीय चमक पर पड़ गई । उसे सारी कथा माद आगई, अतः उसके अंग में सात्विक भाव उदय हुए, पर माता समीप ही थी, इससे उसने चनुराई से उन भारों के होने को इस प्रकार छिपाया कि श्रांख में कपूर की धूर छिड़क ली (जिससे अश्रु पर माता को संदेह न हो) कंपभाव को कमलफूल सूंघ कर छिपाया ( फूल सूंघकर लोग तारीक में सिर हिलाने लगते हैं, इससे कंप का संदेह न होगा) और रोमांच को अच्छी तरह उपरना प्रोढ़कर छिपाया। चतुराई से अपना प्रेमभाव माता पर प्रगट न होने दिया । १५-( निदर्शनालंकार ) मूल -फै नहु एक प्रकार ते, सत अरु असत समान । करिये प्रगट, निदर्शना, समुझत सकल सुजान ॥ ४६॥ भावार्थ-भले काम से भली शिक्षा और बुरे काम से बुरी शिक्षा प्रगट की जाय उसे निदर्शनालंकार कहते हैं। (यथा) मूल-तेई करें चिर राज, राजन में राजै राज, तिनही को यश लोक लोक न अटतु है । जीवन, जनम तिनही के धन्य केशोदास, औरन को पशु सम दिन निघटतु है । तेई प्रभु परम प्रसिद्ध पुहुमी के पति तिनही की प्रभु प्रभुताई को रटत्तु है