दिन वह अपने पूर्णशशिरूपी पति के दर्शन करती है उस दिन
उसके हृदय में तानों की लहरें बढ़ती हैं।
मूल-ताने तानतरंग की, तनु तनु बेधत प्रान ।
कला कुसुमसर-सरन की अति अजान तनत्रान ॥५२
शब्दार्थ-तनु = सूक्ष्म । कुसुमसर = काम । अति अजान =
अज्ञान अर्थात् बालक वा विक्षिप्त का सा अज्ञान । तनत्रान%=
बखतर।
भावार्थ-तानतरंग की तानें प्राणियों के प्राणों के सूक्ष्माति
सूक्ष्म भागों में घुस जाती हैं। उन तानों में काम के बाणों की
शक्ति है, उनसे बचने के लिये केवल अति अज्ञान ही बखतर
हो सकता है अर्थात् अज्ञानी ही उन तानों के प्रभाव से बच
सकता है अन्यथा उनसे बचाव नहीं।
मूल-रंगराय कर आंगुरी, सकल गुणन की मूरि ।
लागत मूक मृदंग सुख, शब्द होत भरपूरि ॥ ५३॥
शब्दार्थ-मूक =गूंगा, अबोल । भरपूरि-सव प्रकार के ।
-रंगराय पातुर के हाथ की ऊँगलिया सर्व गुणों
की मूल है । वे उँगलियां जब गूंगे मृदंग के मुख से छू जाती
हैं तब वह मृदंग सव प्रकार के शब्द बोलने लगती है।
मूल-रंगराय कर, मुरजमुख, रंगमूरति पद चारु ।
मनो पढ़यो है साथही, सब संगीत बिचारु ॥ ५४॥
भावार्थ
रंगराय के हाथ ने, मृदंग के मुख ने और रंगमू-
पति के दर पर दे मात संगीत की समस्त विद्या साथ ही
भावाथ
२
पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/२८
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१५
पहला प्रभाव