पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/२८३

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प्रिया-प्रकाश निष्कंटक सुर कटक कन्यौ कैटभ बपु खंडयो । खरदूषण निशिरा कबंध तरुखंड बिहंड्यो ।। कुंभकरण जेहि मद हन्यौं, पल न प्रतिज्ञा ते टरौं । तेहि बाण प्राग्य दसकंठ के कंठ दसौ खंडित करौं ॥५५॥ ( बिशेष)-रामचंद्रिका के उन्नीसवें प्रकाश में ( छेद ५१ ) यह यात श्रीराम जी उस समय कह रहे हैं जब रावण के युद्ध से लक्ष्मण सरीखे बांके बीर भी घबरा कर हतोत्साह हो रहे थे। यह बात बोरों के उत्साह को उत्तेजित करने को कही गई है। इससे राम जी का उत्साह प्रगट होता है। उत्साह स्थाई होने से बीर रस है। भावार्थ-रामजी कहते हैं कि हे लक्ष्मण ! तुम हतोत्साह मत हो, मैने जिस बाण से मधु, मुर, नरक, शंख और कैटम को मारा है, खर दूषण, त्रिशिरा, कबंध सौर सप्तताल को काटा है, कुंभकर्ण का मद जिस बाण से हरण किया है, मैं प्रतिज्ञा करता हूं और प्रतिज्ञा से पल मात्र न हटूंगा, मैं उसी बाण से रावण के दशौ सिर काट कर उसके प्राण हरण करूगा! (रौद्र रसवत् ) मूल-करि आदित्य अदृष्ट नष्ट यम करौं अष्ट वसु । रुद्रन बोरि समुद्र करौं गंधर्व सर्व पसु ॥ बलित अबेर कुबेर बलिहि गहि देउँ इन्द्र अब । विद्याधरन अविध करौं बिन सिद्धि सिद्ध सब । लै करौं दासि दिति की अदिति अनिल अनल मिट जाय जल । सुनि सूरज सूरज उगत ही करौं असुर संसार बल ॥५६॥