पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/२८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२८० प्रिया-प्रकाश तान्यो शरासन शंकर को जेहि सोऽब कहा तुव लंक न तोरहिं ॥५६॥ भावार्थ-(यह भी मंदोदरी का बचन रावण प्रति है)- बली बालि दूसरे का ( सुग्रीव का) दोष करके राम से नहीं बच सका, तो तुम खास उन्हीं का दोष करके ( सीता हरण करके ) कैसे बच सकोगे। जिसने छीर समुद्र मथ डाला था वह इस छोटे समुद्र को कैसे न बांध लेगा। श्री रघुनाथ को बिना रथ, हाथी, घोड़ों के देखकर असमर्थ मत समझो, जिसने शंकर का धनुष तोड़ा है (जो तुम से उठा तक न था ) वह अब क्या तुम्हारी लंका न तोड़ेगा। अर्थात् निश्चय तोड़ेगा ( जीतेगा)। ( व्याख्या)-मंदोदरी को भय, राम श्रालंबन, उनके कार्य उद्दीपन, बचन ही अनुभाव, अतः भयानक रस । ( बीभत्स रसवत) मूल-सिगरे नरमायक असुर विनायक राकस पति हिय हारि गये । काहू न उठायो, गहि न चढ़ायो, टन्यो न टारे भीत भये ॥ इन राजकुमारन अति सुकुमारन लै पाए हौ, पैज करै ब्रत भंग हमारो भयो तुम्हारो ऋषि तप तेज न जानि परै ॥६॥ भावार्थ-(जनक पचन विश्वामित्र प्रति ) जब सब राजा, असुरपति और राक्षस पति इत्यादि हृदय से हार गये, न किसी ने उठाया, न चढ़ाया, न स्थान ही छोड़ा सके, डरकर चले गये । जब हमारी प्रतिज्ञा भंग हो चुको तर इन अति सुकुमार राजकुमारों को हमारी पैज पूरी करने को लाये हो,