पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/२८८

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ग्यारहवां प्रभाव २८१ हे ऋषि तुम्हारे तप तेज से चाहै जो कुछ हो जाय, पर इन राजकुमारों से तो प्रतिज्ञा पूरी नहीं हो सकती। (ब्याख्या)-प्रतिज्ञा भंग से ग्लानि, राजकुमारों की सुकुमा- रता उहीपन, बचन ही अनुभाव हैं। 'थे राजकुमार क्या तोड़ेंगे' यह भावना ग्लानि सूचित करती है ( कभी कभी निंदात्मक शब्दों से ग्लानि सूचित होती है)। अलः वीभत्स रस। ( अद्भुत रसवत् ) भूल-आशीविष, सिंधुबिध, पावक सों नातो कळू , हुतो प्रह्लाद सों, पिता को प्रेम टूटो है। द्रौपदी की देह में खुथी ही कहा दुःशासन, खरोई खिसानो खाँच बसन न खूटो है । पेट में पबित की पैटि के रचाई मीचु, जब सबही को क्ल बिधिबान लूटो है। केशव अनाथन को नाथ जो न रधुनाथ, हाथी कहा हाथ के हथ्यार करि छूटो है ॥ ६१ ॥ शब्दार्थ-आशीविष सर्प। सिंधुबिष हलाहल । खुथी = थाती । ही थी । न खूटो है - कम नहीं हुआ। विधिवान == ब्रह्मास्त्र । हाथकै हाथ से । हथ्यार करिशस्त्र चला कर । भावार्थ-(कोई ईश्वर भक्त कहता है ) जव पिता शत्रु होगया था, तब प्रहलाद का क्या सर्प, हलाहल, औ अग्नि से कोई रिश्ता था ( जो वह बच गया)। द्रौपदी की देह में क्या वस्त्रों की थोती गड़ी थी कि दुःशासन खींचते खीचने हार गया और बस्त्र कम न हुमा । जब अश्वत्थामा द्वारा प्रेरित ब्रह्मास्त्र