पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/२९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रिया-प्रकाश ( यथा) मूल. गरुको को दोष दूषित कलंक करि, भूषित निशाचरीनि अंक न चंडकरमंडल लें लैलै बहु चंडकर, केशोदास प्रतिमास मास निसरत है। विषधर बंधु हैं, अनाथिनि को प्रतिबंधु, विष को विशेष बंधु हिये हहरत है। कमलनयन की सौं, कमल नयन मेरे, चंद्रमुखी ! चद्रमा तें न्याय ही जरत हैं !! शब्दार्थ-निशाचरी = रात को विचरने वाली व्यभिचारिणी स्त्रियां। चंडकर मंडल-सूर्य ! बिषधर = शंकर। बंधु = हितू । अनाधिनी = पति से विद्युक्त विरदिनी । प्रतिबंधु- अहिलू, विरोधी। कमलनयन - कृष्ण । सौ = शपथ । चंद- मुखी सखी के लिये संबोधन है। न्याय ही = उचित रीति से। भावार्थ-कोई विरहिनी सखी से कहनी है कि हे चंद्रमुखी ! ऋषया की शपथ करके कहती हूं कि मेरे नेत्र कमल चंद्रमा को देखकर जलने हैं सो उचित ही है ( क्योंकि कमल और चंद्रमा का बैर है ) अलावा इसके अच्छे श्रादभी बुरे पर जलते ही हैं। सो चंद्रमा ऐसा बुरा है कि गुरु के भारी दोन से दूषित है, निशाचरियों को अंकमाल देता है, इससे कलंक से भूषित है, सूर्यमंडल से बहुत सी प्रचड किरण चोराकर प्रतिमाल निकलता है, विघधर शिव इसके हितू हैं, और यह विरहिनियों का अहितू (प्रतिबंधु) है और विष का तो