पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/२९५

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२८६ ग्यारहवां प्रभाष (नोट)-हाल के प्राचार्यगण ऐसा कोई अलंकार नहीं मानते। इसके मतानुसार इसे अप्रस्तुत प्रशंसा का कारण निर्वधना' भाग मान सकते हैं। ३-(अयुक्त-युक्त अर्थान्तरन्यास) मूल-अशुभै शुभ हदै जात जहँ, क्योंहूं केशवदास । इहै अयुक्तयुक्त कवि बरणत बुद्धि विलास ॥ ७२ ।। भावार्थ-जहां अशुभ वर्णन में अर्थान्तर से शुभ वार्ता प्रगट हो। (यथा) मूल-पातक हानि, पिता सँग हारियो, गर्भ के शुलन ते डरिये जू। तालन को बधिबो, बध रोर को, नाथ के साथ चिता जरिये जू ॥ पत्र फ. ते कटै ऋण केशव, कैसेहु तीथर में मरिये ज । नीकी सदा लगै गरि सनेह की, डांड भलो जो गया भरिये जू७३॥ शब्दार्थ-रोर दारिद्र, निर्धनता । नाथ = पति । डॉ-दंड, जुर्माना। गया = गया तीर्थ जहां पित्रों को पिंडदान किया जाता है। भलो' शब्द का अन्वय सबके साथ समझना चाहिये। भावार्थ-पापों की हानि भली है, पिता से हारजाना मला है, गर्भवास के दुःख से डरना मला है, तालों का बंधना मला है, दरिद का बध करना भला है, पति के साथ चिता पर जलना भला है, ऐसे पत्र (कागज ) का फटना भला है जिसले ऋण से छुटकारा मिल (ऋण बुरुजाने पर दस्ता. वेज फाड़ दिया जाता है ), तीर्थ में सरना भला है, स्नेहमय गाली भली है, और गया में दंड भरना अच्छा है।