पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/२९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रिया-प्रकाश ( व्याख्या)-हानि, हारना, अरना, बंधना, वध करना, जलना, फटना ( पत्र का) मरना, गाली खाना, दंड भरना ये काम अच्छे नहीं, अशुभ हैं, पर ऊपर वणित संबंध में अच्छे मान गये अर्थात् कवि ने अशुभ को अर्थान्तर से शुभ सूचित किया । यही अयुक्त-युक्त अर्थान्तरन्यास है। (नोट)-अर्वाचीन आचार्य ऐसा कोई अलंकार नहीं मानते । इनकी सम्मति से इसमें 'तुल्य योगिता अलंकार सा दिखाई पड़ता है। (पुनः) भूल-भागे वै लेइबो है. जुचितै इत, चौंकि उतै दृग ऐंचिलई है। भानिबे को बहई प्रतिउत्तर, मानिये बात, जु मौनमई है रोष की रेख, वहै रस की रुख, काहे को केशव बांडि दई है। नाहिंय हां, तुम नाहीं सुनी, यह नारि नईन की रीति नइ है।।७४॥ शब्दार्थ-दूग दूष्टि । रोष की रेख = भौहें सकोडना और मस्तक पर रेखा पड़ना। भावार्थ--कोई प्रौढ़ा दूती अभिश नायक से कहती है कि तुमने नाहक उसे (नायिका को) पकड़ कर छोड़ दिया, तुमने नहीं सुना कि नवीन स्त्रियों की नई रीति होती है। उसने जो तुम्हारी ओर देख कर चौंककर दृष्टि उधर फेर ली यही उसका तुम्हें आगे आकर लेला (स्वागत ) है, मेरी बात मानिये ( जो मैं कहती है उसे सत्य साझिये कि ) तुम्हारे प्रस्ताव की स्वीकृत का यही उन्तर था जो वह मौन होगई। कर भौहें चढ़ाई रोष की रेखा दिवाई, यही उसकी रसिकता है (ये यद्यपि अयुक्त क्रियाएं हैं, तो भी तुम्हारे लिये यही शुभ थी. तुमने यथंही उसे छोड़ दिश) उसने क्रुथ