पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/२९७

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भ्यारहवाँ प्रभाव (व्याख्या)-देखकर दृष्टि फेरलेना, कुछ उत्सर न देना, रोष प्रगट करना, बुरी बाते हैं, पर कवि अर्थान्तर से उन्हें अच्छी बताता है, यही अयुक्त-युक्त अर्थान्तरन्यास है। ४-( युक्त-श्रयुक्त अर्थान्तरन्यास) मूल-इष्टै बात अनिष्ट जहँ कैसे हू हबै जाय । सोई युक्त अयुक्त कहि बरणत कवि सुख पाय ॥ ७५ ॥ ( 7271 ) मूल-शूल से फूल, सुबाल कुबास सी, भाकसी से भये भौन सभागे। केशव बाग महावन सो, ज्वर सी चढ़ी जोन्हि सबै अंग दागे । नेह लगो उर नाहर सो, निसि नाह घरीक कहूं अनुरागे । गारी से गीत, बिरी विष सी, सिगरेई सिंगार अंगारसे लागे ७६।। शब्दार्थ-भाकसी = भट्ठी! सभागे सुन्दर । जोन्हि = चांदनी । दागे दग्ध कर दिये। भावार्थ-गत रात्रि को, पति एक घड़ी भर के लिये कही रुक गया तो नायिका को सब सुख सामग्री दुख दायिनी होगई । ( शेष अर्थ सरल ही है) ( व्याख्या)-कयि अपनी युक्ति से अर्थान्तर करके सुखद वस्तु को दुखद ठहराता है। यही-युक्त प्रयुक्त अर्थान्तरन्यास है।अब ऐसा कोई अलंकार नहीं माना जाता। (पुनः) ( ठीक नं० ७३ का विरोधी भाव ) पाय की सिद्धि,सदा ऋण बृद्धि, सुकीरति आपनी आप कही की दुःख को दान जु, सूतक न्हान जु, दासी की संतति संतत फीकी।।