पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/२९९

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२६३ ग्यारहवाँ प्रभाव फूले ही रहत दोऊ दीबे हेत प्रति पल, देत कामनानि सब मीत हू अमीत सों। लोचन बचन गति बिन, इतनो ई भेद, इंद्रतरुवर अरु इन्द्र इन्द्रजीत सों ॥ ७६ ॥ (नोट)-इस छन्द में केशव ने कमाल कर दिखाया है । राजा इन्द्रजीत की समता इन्द्रतरुवर ( कल्पवृक्ष ) से और इन्द्र से की है और व्यतिरेक से दोनों के साथ मिन्नता भी दिखाई है। कवित के तीन चरणों में ऐसे श्लिष्ट शब्द रखे हैं जो तीनों पर लगते हैं, पुनः चौये में भिन्नता दिखाई है। ( कल्पवृक्ष और इन्द्रजीत) भावार्थ-दोनों सुन्दर और सुखद हैं, कल्पवृक्ष सब प्रकार निषि है-राजा के सब राय नियम अति निर्दोष हैं। कल्पवृक्ष पत्ते और फल सहित है- -राजा सेनायुक्त है और सरस संगीत विद्या में पारंगत है। कल्पवृक्ष अपने पास पास तरह तरह की सुगंध फैलाता है-राजा विविध प्रकार के वन्न (वास ) पहने हैं और दासों से घिरे हुए हैं। कल्प- वृक्ष पर सुन्दर पक्षी बैठे हैं-राजा के पास ब्राह्मण हैं, दोनों का तन परम पुनीत है। प्रतिक्षम दोनो ही देने के लिये उत्सा- हित रहते हैं, दोनों शत्रुमित्र की कामना पूर्ण किया करते हैं, पर भेद इतना है कि कल्पवृक्ष के लोचन नहीं हैं, वह बोल नहीं सकता और चल नहीं सकता-राजा में ये तीनो बातें अधिक हैं (इन्द्र और इन्द्रजीत) शब्दार्थ-(इन्द्रपक्ष का)-सुन्दर महादेव । सुखद - विष्णु । 1