पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/३

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बक्तव्य जिस प्रेमभाष से रसिक साहित्यसेवियों ने हमारी लिखी केशवकौमुदी (रामचंद्रिका की टीका) को अपनाया है, उसी प्रेम भाव ने हमें यह 'प्रियाप्रकाश लिखने तथा प्रकाशित करने को उत्साहित किया है। एक ऐसा समय था कि इस ग्रन्थ को पढ़े विना कोई साहित्यमर्मज्ञ कहलाता ही न था, फिर ऐसा समय आया कि लोग इसका पढ़ना पढ़ाना ही भूल गये। अब फिर ऐसा समय पा रहा है कि कालेजों में इसका पठन पाठन ज़रूरी समझा जायगा । परंतु इसकी भाषा, इसके भाव, तथा इसके कुछ शब्दार्थ समझने में नन्यभावभरित प्रोफेसरों को नवीन कठिनाई सी जान पड़ती है। हमें केशव का यह ग्रंथ बहुत प्रिय है। हम चाहते हैं कि इसे सब रसिकजन पढ़ें। इसी से हमने यह टीका लिखी है । इसपर दो टीकाएं पुरानी भी हैं । एक सरदार कबि की, दूसरी हरिचरणदास की। परंतु वे ऐसी लिखी गई हैं कि उनका समझना मूल से भी अधिक दुरूह है । हमने यह टीका लिखते समय इन दोनों टीकाओं से सहायता ली है, और दोनों टीकाकारों के ऋणी हैं। परंतु सदा स्थलों पर हम उनके अर्थो से सहमत नहीं हो सके। कहीं कहीं तो बड़ा अन्तर पड़ गया है । अस्तु, हमने अपनी योग्यता में कुछ उठा नहीं रखा, टीका अच्छी हो या बुरी श्राप के सामने है। 'बिहारोबोधिनी' तथा 'केशवकौमुदी' की तरह हमने इसमें भी कुछ छंदों की टीका नहीं लिखी और केवल " भावार्थ भर