पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/३०७

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बारहवां प्रभाव ३०१ शब्दार्थ-विलास निवास - कृष्ण, व्यंग से पर स्त्री विलासी । कंप सात्विक भाव, व्यंग यह कि क्रोध से। मुद्रित होतः मुंदे जाते हैं । बर ही =बल ही, बल पूर्वक । अरविंद सो है। कमल सम शीतकर है, व्यंग से दाहक है। चंद सो= शीतल, ब्यंग से कलंकिता भावार्थ-(सीधा सादा)-संडिता बचन सस्वी प्रति । ज्यों ज्यौं उमंग पूर्वक मैने कृष्ण को हृदय के नेत्रों से देखा, त्यों त्यों मुझे अधिक कंप हुआ, न जाने मेरे हृदय को कुछ भ्रम हुश्रा, या डर गया या विशेष सरदी लग गई। मेरे नेत्रकमल बरबस मुदे जाते हैं, इन्होंने तेरा कहना सच मान लिया था, तूने कहा था कि कृष्ण का मुख कमल सम है ( नेत्रों ने समशील मान कर सुख की अाशा की थी सो) कृष्ण का मुख तो चंद्रमा सा है (जिस से मेरे नेत्र कमल मुंदे जाते हैं)। (व्याख्या)-व्यंग से वक्रोक्ति यह निकली कि कृष्ण पर स्त्री विलासी हैं, उन्हें देखकर मुझे क्रोध हुआ, मैंने उनकी ओर से अांखें मूंद ली उनका मुख चंद्र सम कलंकी है, अन्य स्त्री के कजलादि के चिन्ह उनके मुख पर हैं। (पुनः) मूल-अंग अली धरिये ऑगयाऊ न पाजु ते नींद न आवन दीजै। जानति हौं जिय नाते सखीन के लाजहू को अन साथ न लीजै ॥ थोरेहि द्यौस ते खेलन तऊ लगी उनसों जिन्हें देखि के जीजै । नाहके नेह के मामिले आफ्नी छाहँहु की परतीति न कीजै ॥५॥ शब्दार्थ-धौस-दिवस, दिन । तेऊ-वे भी (सखीगण) उनसों उनके साथ (मेरे पति के साथ)। जिन्हें देख के