पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/३०९

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बारहवाँ प्रभाव २-(अन्योक्ति) भूल-औरहि प्रति जु बखानिये, कछू और की बात । अन्य उक्ति तेहि कहत हैं, वरनत कबि न अवात ॥ ६ ॥ दल देख्यो नहीं जड़ जाड़ो बड़ो अरु धाम घनो जल क्यों होरहै। कहि केशव बायु बहै दिन दाब दहै धर धीरज क्यों धरिहै ।। फलिहै फुलिहै नहिं तौलो तुही कहि तो पहँ भूख सही परिहै । कछु छह नहीं सुख सोभ नहीं, रहि कीर करीर कहा करिहै ॥७॥ शब्दार्थ-दल = पते । क्यों हरि है कैसे निवारण करेगा। दाव-दावाग्नि। धर = शरीर ! सही परिहै -सही जायगी। सोम-शोभा। कीर शुक। करीर = ( करील ) कैंटीली झाड़ी विशेष जिसमें पत्ते नही होने । यह झाड़ी यमुना तटस्थ स्थानों में बहुत होती है। इसे टेंटी और कर भी कहते हैं। (नोट)--प्रत्यक्ष में तो ज्ञानी करीर पर बैठे हुए शुक से कहता है, पर वास्तव में यह उपदेश किसी ऐसे व्यक्ति प्रति है जो किसी सम्पत्तिहीन राजा की सेवा कर रहा है। ऐसे ही कथन को अन्योक्ति कहते हैं। भावार्थ-~-पत्र तो इसमें कभी देखे नहीं गये, हे जड़ शुक! कड़ा जाडा, घाम और वर्षा यह कैसे निबारण करेगा। प्रति दिन हवा चलैगी, कभी दावाग्नि जलेगी तब तेरा शरीर कैसे धीरज धरैगा। तूही, बतला कि जब तक यह फूलै फलैगा नहीं, तब तक भूख तुझसे सही जायगी । न तो कुछ छाया है, न सुख है न शोभा है, हे कीर ! इस करील वृक्ष के आश्रय रहकर तू क्या करेगा?