पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/३१४

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३०८ प्रिया-प्रकाश दई निरदई दई वाहि ऐसी काहे मति, जारति जु ऐन रैन दाह ऐसे गात की । कैसे हूँ न मानै हो मनाइहारी केशोराय, बोलिहारी कोकिला बोलावहारी चातकी ॥१६॥ शब्दार्थ-कादविनी - मेघमाला, घटा। दिसि जिस ओरजाना है। अधरात की = आधीरात की बेला । भुकना = क्रुद्ध होना ! बात की त्रिविधिगति =शीतल, मंद, सुगंध वायु । भावार्थ-सरल ही है । उद्दीपन के प्रबल कारण मौजूद हैं, पर मानिनी ने मान नहीं छोड़ा-इसो की रिपोर्ट कोई सखी नायक से करती है। (पुनः) मूल-कर्ण कृपा द्विज द्रौण तहां जिनको पन काहू पै जात न टारो। भीम गदाहि घरे धनु अर्जुन, युद्ध जुरे जिनसों यम हारो॥ केशवदास पितामह भीषम मीचु करी बश लै दिसि चारो। देखत ही तिनके दुरयोधन द्रौपदी सामुहें हाथ पसारो ॥१७॥ भावार्थ-बड़े बड़े प्रबल कारण मौजूद थे, पर कोई दुर्यो- धन को रोक न सका उसने द्रौपदी के पकड़ने को हाथ फैला ही दिया। (पुनः) मूल-वेई हैं बान विधान निधान अनेक चमू जिन जोर हई नू। वेई हैं बाहु बहै धनु धीरज दीह दिसा जिन युद्ध जई जू ।।