पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/३१८

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प्रिया-प्रकाश ( यथा) मूल शीतल हू हीतल तुम्हारे न बसति वह, तुम न तजत तिल ताको उर ताप गेहु । आफ्नो ज्यौ हीरा सो पराये हाथ ब्रजनाथ, दै कै तो अकाथ साथ मैन ऐसो मन लेहु । एते पर केशोदास तुम्हें परवाह नाहि, वाहै जक लागी भागी भूग्व सुख भूल्यो गेहु । मांडो मुख छांडो छिन छल न छबीले लाल, ऐसी तो गँवारिन से तुमही निबाही नेहु ॥२३॥ भावार्थ-कोई दूती कहती है कि हे कृष्ण ऐसी गंवारिन से तुम नेह करते हो (यह तुम्हारे लिये बड़ी प्रशंसा की बात है)। तुम्हारे शीतल हृदय मे वह अपना बास नहीं बनाती, और तुम उसके तत हृदय में घर किये हुए हो ( तुम्हारे हृदय में प्रेम की गरमी नहीं, उसको तुमने भुला दिया है और तुम उसके बिरह संतप्त हृदय में सदा बसते हो)।हे ब्रज- नाथ! अपना हीरा सम ( बहुमूल्य ) मन देकर व्यर्थ ही उसका मोम सम ( कम कीमत का ) मन लेते हो (तुम्हारा मन हीरा सा कठोर है उसका मन मोम सम मृदु है)। इतने पर भी तुम्हें उस बहुमूल्य हीरा सम मन की कुछ पर- वाह नहीं है, और उसे अपने मोम सम मन के लिये जक लगी है ( बारबार कहती है) कि कृष्ण मेरा मन ले गया और इसी चिंता में उसकी भूख भग गई है, सब सुख छूट गये हैं, यहां तक कि गृहकार्य भी भूल गये हैं ( तुम्हें कुछ