पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/३१९

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बारहवा प्रभाव परवाह नहीं है और उसकी ऐसी बुरी हालत है)। मुख से तो वह बहुत कुछ प्रशंसा करती है पर क्षणमात्र के लिये भी कपट नहीं छोड़ती (तुम भी मुख से बहुत बातें बनाते हो पर छल नहीं छोड़ते), हे छवीले लाल ( देखने में तो बड़े सुंदर हो पर हो छली); ऐसी गवारिन से श्रापही प्रेम निबा- हते हैं (ऐसी गवारि न सो, तुम ही न बाहो प्रेम वह तो ऐसी गवारी नहीं है तुमही हीन प्रेम हो) (नोट)-कृष्ण की प्रशंसा से निंदा प्रगट है। और नायिका की निंदा से उसकी प्रशंसा ही लक्षित होती है। (पुनः-व्याजस्तुति) मूल- केसर कपूर कुंद केतकी गुलाब लाल, सूंघत न चंपक चमेली चारु तोरी हैं। जिनकी तू पासवान बूझियत, आसपास, ठादी केशोदास कीन्हीं भय भ्रम भोरी हैं । तेरी कौनो कृति किधौं सहज सुबास ही ते, बसि गई हरि चित कहूं चोरा चोरी हैं। सुनहि ! अचेत चित, आई यह हेत, नाही, तोसी ग्वारि गोकुल गोबर हारी थोरी हैं ॥२४॥ (विशेष) कृष्ण किसी पशिनी पर नासक्त होकर अचेत पड़े हैं । कोई सखी उसके पास जाकर कहती है । भावार्थ-जबसे कृष्ण ने तेरे शरीर की सुगंध पाई है तबसे वे अन्य सुगंध पुष्प सूंघते ही नहीं, सब कुंजे उन्होंने उजाड़ हाली । जिनकी तू दासी सी जान पड़ती ऐसी सुन्दर नियां