पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/३३४

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तेरहवां प्रभाष से हज़ार गुनी हो जाती है, इसे चित से सत्य मान लीजिये। वह मुख कमल प्रीति का सदन ( रतिमुख) है पर उसे मदन नहीं छू सकता। (व्याख्या)-मुख का सनातन उपनाम 'कमल' है। उसी से रूपक चांधा गया, पर बिलक्षणताएं ये वर्णन की गई कि:-- १-वह सदा फूला रहता है। २-रात्रि में चंद्र के प्रसंग से सहनगुनी ज्योति होती है।३-रति का सदन होने पर भी मदन उसे नहीं छू सकता। यही अद्भुतता है। २-(विरुद्ध रूपक) मूल-जहँ कहिये अनमिल कछु, सुमिल सकल निधि अर्थ । तेहि बिरुद्ध रूपक कहैं, केशव बुद्धि समर्थ ॥ १७ ॥ भावार्थ-जहां कुछ अनमिल कहा जाय अर्थात् रूपक का एक अंग ( उपमेय)-प्रत्यक्ष न मिलता हो न कहा गया हो। मूल-सोने की एक लता तुलसी बन क्यौं बरणों सुन बुद्धि सकै छ्वै। केशवदास मनोज मनोहर ताहि फले फल श्रीफल से वै ॥ फूलि सरोज रह्यो तिन ऊपर रूप निरूपत चित्त चलै च्वै । तापर एक सुवा शुभ तापर खेलत बालक खंजन के द्वै ॥१८॥ शब्दार्थ-तुलसीवनः वृन्दावन। श्री फल-बेल । ब्बै (बिय) दो। रूप निरूपत= उसका सौन्दर्य वर्णन करते समय । चित्त बैचलै-चित्त द्रवित हो जाय, मन प्रेमरस से श्राई हो उठे। (नोट) इसमें केवल उपमान कहे गये हैं। उपमेय लुप्त हैं (इसी लोपन को केशव ने 'अनमिल' कहा है अर्थात् जो शब्दों में प्रत्यक्ष न मिले।