पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/३३५

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प्रिया-प्रकाश भावार्थ कोई सस्त्री कृष्ण से कहती है ) मैंने बृन्दाबन में एक सोने की लता (नायिका) देखी है, कैसे वर्णन करू थुद्धि यहां तक पहुंचती ही नहीं, उस लता में काम का भी मन हरने वाले दो बेल के से फल ( कुच) फले हैं। -उन पर एक कमल ( मुख ) फूला है जिसका सौन्दर्य निरूपण करते चित्तं द्रवित होता है। उस कमल पर एक सुधा (नाक) है, और उस पर खंजन के दो बालक (नेत्र ) खेल रहे हैं। (नोट)-हाल के प्राचार्य इसे रूपकातिशयोक्ति कहते हैं। ३-(रूपक रूपक) मूल-रूप भाव जहँ वरनिये कौनिहु बुद्धि बिवेक । रूपक रूपक कहत कवि, केशवदास अनेक ॥ १९॥ भावार्थ-जहां किसी वस्तु या किसी भाव का रूपक मनमानी बस्तु से बांधे अर्थात् इसमें यह जरूरी नहीं है (जैसे कि अद्भुत रूपक में ) कि उपमेय और उपमान का सनातन संबंध हो। ( यथा) मूल-कासितासित काछनी केशव पातुरि ज्यों पुतरीनि विचारो। कोटि कटाक्ष चलें गति भेद नचावत नायक नेह निनारो। बाजतु है मृदु हास मृदंग, सुदीपति दीपन को उजियारो। देखत हौ हरि । देवि तुम्हें याहे होत है आखिन ही में अखारो॥२०॥ शब्दार्थ-काछनी =पेशवाज़ । 'निनारों' = न्यारा, अलग (इसका अन्वय 'बाजतु है' से है )। अखारो नाच । यहि = इसके । भावार्थ-हे कृष्ण ! देखते हो (देखो ) तुम्हें देख कर उस सखी की आंखों में नाच का जलसा होने लगता है। स्याइ