पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/३४२

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तेरहवां प्रभाष ३३७ (२) श्रानंद । रूप को रूपक रच-सौन्दर्य के अनुमान करने स्वगता है। भावार्थ-देह एक दीपक है। यह युवावस्था से मिलता (जैसं दीपक बत्ती से मिलता है) वह युवावस्था बल को बढ़ाती (युवावस्था में बल पाता है) और ज्ञान : जगाती है (जैसे बत्ती मिलने से चिराग जल कर प्रकाश फैलाता है) । शान बढ़ने से सब वाले समझ में आने लगती है और अज्ञान का शोधन हो जाने से अानंद जान पड़ता है (जैसे चिराग के उजाले स सब बस्तुएं सूझ पड़ने लगती है और अंधकार के हटने से स्थान का सौन्दर्य देख पड़ने लगता है) सौन्दर्य आने से और अधिक सौन्दर्य का अनुमान होने लगता है, फिर वह सौन्दर्य काम उपजाता है, काम से प्रेम बढ़ता है और प्रेम प्राणप्रिय से मिला देता है। (नोट) इसमें एक बात दूसरी से कड़ी के समान जुड़ी हुई है, और चिराग की मौज नियत के लिये 'दशा, तेज, तम, ग्रुवता इत्यादि शब्द उपयुक्तता से प्रयोग किये गये हैं। इस कारण इसमें मालापन भी है और दीपकता भी, अत: माला दीपक' है। (विशेष)-अधांचीन मत से इसकी परिभाषा ठीक वही है ओ केशव ने दी है, पर उदाहरणों में दीपक नहीं पाया जाता, केवल मालापन ही है। (पुनः) मूल-धनाने की घोर सुनि, मोस्न के तोर सुनि, मुनि मुनि केशव कलाप आली मन को।