पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/३४५

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३४० प्रिया-प्रकाश आषर्थ-देखती सुनती खाती कुछ नहीं, पैर नहीं है, स्त्री जाति है, पर रातो दिन चलती है कभी थकती नहीं (राह = रास्ता) (पुनः) माल-केशव ताके नाम के आखर कहिये दोय । सूधे भूषन मित्र के उलटे दूषन होय ॥ ३५ ॥ भावार्थ-'राजशब्द । मित्र के 'राज' हो तो अच्छी 'जरा हो तो धुरी। मूल-जाति लता दुइ आखरहि, नाम कहै सब कोय । सूधे सुख मुख भक्षिये, उलटं अंबर होय ॥३६॥ भावार्थ-दाख' । उलटने से 'सदा' होगा जो एक प्रकार का बल है। जिसे खद्दर वा खादी कहते हैं। मूल-सद सुख चाहौभोगिबो, जो पिय एकहि बार । चंद गहै जहँ राहु को जैयो तेहि दरवार ॥३७॥ ( मोट)-राजा बीरबर के दर्धान के निवेदन करने पर केशव ने बड़े अच्छे ढंग से पतिराम की तरह इसका नाम भी अपनो कविता द्वारा अमर कर दिया। भावार्थ-हे पिय ! यदि सर्वसुख एकही स्थान में रहकर मोगमा चाहते हो, तो उस दरबार में जाकर रहना जहां चंद राहु को पकड़ता है (जहाँ चंद नामक दर्बान राह रोकता है-बिना मालिक की श्राक्षा अंदर नहीं जाने देता) अर्थात राजा बीरबर का दर्यार।