पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/३४७

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३४२ प्रिया-प्रकाश बदनामी होती है, जो उनकी छवि मनमें रखती हूं तो कामो- हीपन होता है । हे सखी ! जो तू कहती है वही वात मेरे मन में भी थी (कि उनसे प्रेम करू) परंतु यही बातें समझकर हृदय में उमंग नहीं होती क्योंकि कृष्ण की ओर जरा भी दृष्टि डालते लोग बदनामी से उंगली उठाने लगते हैं । (पुनः) मूल-हाथ गझौ ब्रजनाथ सुभावही छूटि गई धुर धीरजताई। पान भने मुख नैद रची रुचि, आरसी देखि, कहौं यह ठाई ।। दै परिरंभन मोहन को मन मोहि लियो सजनी सुखदाई । लाल गोपाल कपोल रदक्षत तेरे दिये ते महा छबि छाई ॥४॥ शब्दार्थ-धुर = (ध्रुव ) निधन । धीरजताई = धैर्य ! रुचि रंग। ठाई = सत्य । परिरंभन = श्रालिंगन । भावार्थ--( सखी बचन नायिका प्रति )-जब श्रीकृष्ण ने तेरा हाथ प्रेम से एकडा तो उनका धैर्य छूट गया। तूने पान तो खाये हैं मुख से, पर रंग रचा है आँखों में (विश्वास न हो तो) पारसी लेकर देख ले मैं यह बात सत्य कह रही हूं। हे सुख दायिनी सखी! तू ने आलिंगन देकर कृष्ण का मन मोहित कर लिया, और श्री गोपाललाल (कृषण ) ने तेरे कपोल पर जो देतायात किया है उससे तेरी छमि और 3- (नोट)-पहले और चौथे चरणों में केशव के मत का और तीसरे चरण में अर्वाचीन मत का परिवृत्त अलंकार है। दूसरे चरण में 'असंगति' अलंकार है।