पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/३५०

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चौदहवां प्रभाव १--(संशयोपमा) मूल-जहां नहीं निरधार कछु सब संदेह सरूप । सो संशय उपमा सदा, बरनत हैं कवि भूप ॥ ५ ॥ (नोट) इसी को अब लोग 'संदेहालंकार के नाम से मानते (यथा) मूल-संजन हैं. मनरंजन केशव रंजन नैन किधी, मति जीकी । मीठी सुधा कि सुधाधर की; दुति दंतन की किषौं दाडिम ही की ।। चंद भलो मुख चंद किया सखि मुरति काम कि कान्ह की नोकी । कोमल पंकज के पद पंकज, प्राण पियारे कि मूरति पी की ॥६॥ भावार्थ-(नायिका बचन सखी प्रति) हे सखी, मैं तो कुछ निश्चय नहीं कर सकी, तू अपनी जी कीमत से निश्चय करके बतला.दे कि खंजन अच्छे लगते हैं:या. कृष्ण के नेत्र, सुधा मीठी है या उनके अधरों की मिठाई, दातों की दुलि अच्छी है या अनार के दानों की । चंद्रमा सुन्दर है या उनका मुख चंद्र, काम की मूर्ति अच्छी है या कृष्ण की, कमल कोमल हैं या कृष्ण के चरण, प्राण प्यार करने योग्य हैं.या कृष्ण को मूर्ति? २--( हेतुपमा) मूल-होत कौनहू हेत ते, अति उत्तम सोउ हीन । ताही सों हेतुपमा, केशव कहत प्रवीन ||७|| भावार्थ-जहां उपमान साधारणतः उपमेय से हीन जंचे।