पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/३५२

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चौदहवाँ प्रभाव ३-(अभूतोपमा) मूल-उपमा जाय कही नहीं, जाको रूप निहारि । सो अभूत उपमा कही, केशवदास बिचारि ॥६ मूल-दुरिहै क्यों भूषन बसन दुति यौबन की, देह ही की जोति होति द्यौस ऐसी राति है। नाह की सुबास लागै वैहै कैसी केशव, सुभाव ही की बास भौंर भीर फारे खाति है। देखि तेरी मूरति की सूरति बिसूरति हौं, लालन को दृग देखिये को ललचाति है। चलिहै क्यों चन्द्रमुखी कुचनि के भार भये, कचन के भार ते लचकि लंक जाति है ॥१०॥ शब्दार्थ-दुति = बमक दमक । द्यौल = दिन। नाह= पति । मूरति = शरीर । सूरति = सौन्दर्य । विलूरति हो = सोचती हूं। भावार्थ-सूषण, वस्त्र और यौवन की ज्योति कैसे छिपेगी, जब तेरे शरीर की साधारण चमक से रात्रि भी दिन समान हो जाती है। पति की सुगंध लगने से क्या दशा होगी, जब तेरी स्वाभाविक सुगन्ध से ही भ्रमर समूह तुझे इतना सताता है कि चारो ओर से मँडरा मंडरा कर खाये सा डालता है। तेरे शरीर का सौन्दर्य देख कर मैं तो यह सोचती है, और तू कृष्ण को देखने को ललचाती है । हे चन्द्र मुखी! कुचों के भार से तू कैसे चलेगी जब केवल बालों के भार से तेरी कमर लचकी जाती है ( इतनी सुकमार है)