पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/३५६

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का चौदहवां प्रभाव हाटक - सोना (रंग का उपमान)! कोकचक्रवाक (कुचों का)। कपोत = कबूतर ( श्रीवा का)। करी हाथी (गति का)। अहि =सर्प (वाहों का)। केहरि सिंह (कटि का)। कोकिल =(वाणी का उपभान ) । झीर = शुक (नाक । कुचील-मैले, कुरूप। भावार्थ-यदि यह कहूं कि चंद्रमा उसके मुख के तथा कमल उसके नेत्रों के समान हैं तो झूठ है, क्योंकि राहु और भ्रमर- राण ने इनके शरीरों को नीरस कर डाला है, अनार, शेफाली (निवारी की कलियों ) मूंगे और सुवर्ण को अनेक कष्ट हैं ( जिससे ये भी अपने अपने उपमेयों की समता नहीं कर सकते ), चक्रवाक, कबूतर, हाथी, सर्प, सिंह, कोयल और तो कहे गये हैं। इससे ये भी अपने उपमेघों के लिये ठीक उपमान नहीं), अतः उस प्रिया के लय अंग अनूपम हैं, वे अपने उपमान आपही हैं ( उनके लिये दूसरा उपमान है ही नहीं) ( व्याख्या)-उपमानों को दूषित ठहराकर उपमेय की प्रशंसा करना ही दूषणोपमा है। अंत में इसका रूप अनन्लयोपमा का ला लख पड़ता है। ७-(भूषणोपमा) मूल-दूषण दूर दुराय जहँ, बरणत भूषण भाय । भूषण उपमा होति तहँ, बरणत सब कविराय ॥१७॥ भावार्थ-जहाँ उपमानों के दूषण छिपाकर केवल उनके गुणों का ही लिहाज़ करके उपमा कही जाय, यह भूष. पोपमा।