पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/३६२

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चौदहवाँ प्रभाव ३५७ कहा। और फिर यह भी कहा कि न हुए हैं, न हैं, न होगे। श्रतः उपमेय' इन्द्रजीत का गुण बहुत अधिक बढ़ गया। शब्दार्थ-सुरंग = सुंदर रंग के। कुरंग-हिरण । यज्ञअंक= यज्ञ के चिन्ह (धूम अथवा स्वाहादि शब्द )। कलीत ( कलित), युक्त। सुधानिधीश शिवजी। रस भक्ति। सुनीत-सुनते हैं। पुनीत से पवित्र से हैं, अर्थात् पूर्णतः पवित्र नहीं कुछ अपवित्र भी हैं। भावार्थ- उनके साथ (इन्द्र के पास ) सफेद रंग का केवल एक धोड़ा है; इनके (इन्द्रजीत के ) पास अनेक सुंदर रंगों के और हिरन के समान तेज़ चालवाले अनेक घोड़े हैं। ये यज्ञ चिन्हों से निशंक रहते हैं, और वे सदा डरा करते हैं (कि यज्ञबल से कोई मेरा पद न छीन ले)। ये कलंक रहित हैं और वे कलंक शुक्त है ( अहल्या प्रसंग से) के अमृतपान किये हुए हैं, और ये शिभक्ति के रस को पान किये हैं। ये वास्तव में पवित्र हैं और उनको तो सुनते हैं कि पवित्र से हैं (क्योकि देवराज हैं तो पचिनात्मा होही गे)। ये बिना कुछ दिये ही सब को देते हैं, और वे बिना दिये कुछ नहीं देते। अतः इन्द्रदेव त्रिकाल में भी इन्द्रजीत समान नही कहेला सकते अर्थात् राजा इंद्रजीत इन्द्र से बड़कर हैं । ११-(अतिशयोपमा) मूल-एक कछू एकै विषे, सदा होय रस एक { अतिशय उपमा होति तह, कहत सुबुद्धि अनेक ॥ २५ ॥ भावार्थ-जहां उपमानों को महज साधारण वस्तु ठहराकर निराकृत करते हुए उपमेय की अति उत्कृष्टता वर्णन करें।