पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/३६५

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३६० प्रिया-प्रकाश भावार्थ-मछलियां समझती हैं कि सीता की सी नेत्र शोभा हम ही में है, यह सब भेद मैं जानती हूं तो कैसे न बताऊं। काम के बाणों को अन्य ही प्रकार का बेहद्द गर्व बढ़ गया है सो कैसे कहूं ( वे समझते हैं कि सारी कटाक्ष तीक्षणता हमी में है) सृगियो के नेत्रबिलास की अनेक प्रकार की प्रशंसा के गीत प्रत्येक घर में गाये जाते हैं। ये सब समझते हैं कि सीता के नेत्रों की शोभा हमी में है सो झूठी बात है, वैसी शोभा तो कमल और खंजन में भी पाई जाती है- अर्थात वैसी नेशोभा अनेक स्थानों में पाई जाती है। १३--(श्लेषोपमा) मूल-नहीं खरूप प्रयोगिये, शब्द एक ही अर्थ 1 केशव तासों कहत हैं, श्लेषोपमा समर्थ ॥२९॥ भावार्थ-जहां ऐसे श्लिष्ट शब्द प्रयोग किये जाँय जिनका समान अर्थ उपमेय और उपमान दोनों में लगा सके। (यथा) मूल --सगुन, सरस, सब अंग राग रंजित है, सुनहु सुभाग बड़े भाग बाग पाइये। सुंदर, सुबास तनु, कोमल, अमल मन, षोडस बरस मय, हरष बढ़ाइये ।। बलित ललित बास. केशोदास सबिलास, सुंदरि सवारि लाई, गहरु न ल्याइये । चातुरी की शाला मानि, आतुर ह्वै नंदलाल, चंपे की सी माला बाला उर उरझाइये ॥३०॥