पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/३६७

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प्रिया-प्रकाशे सब सुख सिद्धि शिवा सोहैं शिव जू के साथ जावक सो पावक लिलार लाग्यो सोहिये ॥ ३२ ॥ (नोट)--शब्दार्थ और भावार्थ के लिये देखिये 'केशवकौमुदी' प्रकाश २५, छंद नं. २५ । (ज्याल्या)-इस छंद में शिव के रूप में भूगार रस की केवल कुछ बातें ही ( एक अंग ) वर्णन की गाई । ऋगार का पूर्ण रूप नहीं कहा। इस वर्णन से संयोग समय के समस्त (आपाद मस्तक ) रूप का ज्ञान नहीं होता केवल कुंछ रति चिन्हों का ज्ञान होता है। यही धर्मोपमा है। १५-(बिपरीतोपमा) मूल--पूरब पूरे पुन्य के, तेई कहिये हीन । तास बिपरीतोपमा, केशव कहत प्रबीन ॥ ३३ ॥ भावार्थ-जो पहले पूरे भाग्यवान ब्यक्ति रहे हों, उनकी हीनता वर्णन की जाय और इस तरह पर वे अतिहीन व्यक्ति के समान दर्शाये जायं। ( यथा) -भूषित देह विभूति, दिगवर, नाहि न अंबर अंग नबीनो। दूरि के सुंदर सुन्दरी केशव, दौरि दरीन में आसन कोनो । दखिय मंडित दंडन सो, भुजदड देऊ असि दंड विहीनो। राजनि श्रीरघुनाथ के राज कुमंडल छांडिं कमंडल लीनो ॥३४॥ शब्दार्थ--विभूतिः ति= भस्म । अंबर कपडा। दरी- कंदरा। असिः तलबार । दण्ड राजदण्ड । कुमंडल पृथ्वी मंडल