पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/३७१

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चौदहवाँ प्रभाव १९-(विरोधोपमा) मूल-जहँ उपमा उपमेय सों, आपुस माहिं विरोध । सो विरोध उपमा सदा, बरणत जिन्हें प्रबोध ॥ ११॥ (यथा) मूल-कोमल कमल, कर कमला के भूषण को, केशोदास दृषण शरद शशि ठाई है। शशि अति अमल अमृतमय मणिमय, सीता को बदन देखि ताको मलिनाई है। सीता को बदन सब सुख को सदन, जाहि, मोहत मदन, दुख कदन निकाई है। श्राधो पल माधो जूके देखे बिनु सोई शशि, सीता के बदन कहँ होत दुखदाई है ।। ४६ ।। शब्दार्थ-दूषण ठाई है बिनाशक का स्थानापन्न है, बिनाशक है। मणि कांति । कदन-नाशक ! माधो-राम जी। भावार्थ-लक्ष्मी के हाथ के भूषणरूपी कोमल कमल के लिये शरदशशि विनाशक ही है। चंद्रमा अति निर्मल है, अमृतमय तथा कांति वाला है, तो भी सीता का मुख देखकर वह अलीन हो जाता है। सीता का मुख सब सुखों का स्थान है, जिसे देखकर काम भी मोहित होता है, और जिसकी सुंदरता दुख को नाश करती है। वही चंद्रमा सीता के मुख को दुःख दाई हो जाता है यदि थोड़ी देर चे राम को न देखें। ( ब्याख्या )--यहां शशि और सीतामुख से परस्पर विरोध है। पर साधारणतः चंद्रमा मुख का उपमान ही माना जाता है।