पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/३७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चौदहवां प्रसाद शब्दार्थ-कल्प-शरीर । छोर निधि छबि अच्छ-छोर समुद्र से विवाद करनेवाला कि तेरी छबि क्या मेरी छषि से अच्छी है। रूपा-चांदी गीत कीलिमय विरद । (नोट)-भावार्थ सुगम ऊपर कथित शब्दों सेक समता तो नहीं, पर समता का सा भाव अवश्य भासित होता है, अतः ये शब्द:संकीर्णोपमा के बाचक हैं। (विशेष) मूल-कोकिल से अति कृष्ण धन, करिणी सम गिरिराज । मृग सूरो मृगराज सो, ऐसे वरणत लाज ॥ ४६॥ भावार्थ-कोकिल से काले बादल, पहाड़ सी हथिनी, सिंह समान मृग कहना लज्जा की बात है-अर्थात् अनुचित उपमा देना ठीक नहीं। नोट -इसके बाद किसी किसी प्रति में नख शिख' वर्णन है। पर हम उसे क्षेपक समझते हैं, अतः छोड़ दिया गया है। (चौदहवां प्रभाव समास)