पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/३७९

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पंद्रहधा प्रभाव मन को भी मथन करनेवाले कृष्ण और राधिका एक संग ही रहते हैं। (दूसरे और तीसरे में) मूल-माप मनावत प्रानप्रिय, मानिनि ! मानि निहारि । परम सुजान सु-जान हरि, अपने चित्त बिचारि ॥१०॥ भावार्थ---हे मानिनी ! देख, तुझे स्वयं तेरा प्रीतम मना रहा है, अतः मान जा (सान छोड़ दे), कृष्ण को परम सुजान जानकर अपने चित्त में विचार कर (कि जब ये सुजान होकर तुझे मना रहे हैं तो कुछ तो तुझको मानते हैं, नहीं तो क्यों मनाते, क्या उन्हें कोई दूसरी नायिका नहीं मिल सकती) (दूसरे और चौथे में) मूल-जिन हरि जग को मन हरयौ, बाम ! बामग चाहि । मनसा बाचा कर्मना, हरि बनिता बनि ताहि ॥ ११ ॥ भावार्थ हे बाम! जिस कृष्ण ने तिरछी नजर से देखकर सारे संसार का मन हर लिया है, तू मन बचन कर्म से उसी कृष्ण की स्त्री बन जा। (तीसरे और चौथे में) मूल-श्राजु छबोली छवि बनी, छोड़ि छलनि को संग । तरुनि ! तरुनि के तर मिले, केशव के सब अंग ॥१२॥ भावार्थ-प्राज श्रीकृष्ण की छवि खूब बनी है ( अच्छा शृंगार किया है ) अतः हे तरुणी! तू छल छोड़ कर वृक्षों के नीचे (किसी कुंज में) कृष्ण के सब अंगों से लिपट कर उनसे मिल।