पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/३८०

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प्रिया-प्रकाश (त्रिपाद यमक) (चतुर्थ पद रहित) मूल-सारस सारस नैनि सुनि, चंद्र चन्द्रमुखि देखि । तू रमनी रमनीयतर, ताते हरि मुख लेखि ॥ १३ ॥ नोट-इसमें चौथे पद में यमक नहीं है, शेष तीनों में है। शब्दार्थ - सारस- (स+बारस) आलस बलित। सारस- ननी= कमल नयनी। भावार्थ-हे अलसीली कमलनयनी ! सुन, हे चन्द्रमुखी! चंद्रमा को देख (चंद्रमा निकल आया और तु अभी तक आलस में पड़ी हुई है, उठ कृष्ण के पास चल) तू अन्यापेक्षा अधिक सुन्दरी है, इसीसे कृष्ण तुझे अपनी मुख्य प्यारी समझते हैं ( चल तुझे बोलाते हैं) (सृतीय पद रहित) मूल- -देखि प्रबाल प्रबाल हरि, मन मनमथ रस भीनि । खेलन वह सुन्दरि गई, गिरि सुंदरी दरीनि ॥ १४ ॥ शब्दार्थ-प्रवाल = नवपल्लव, किशलय। प्रवाल हरि= उत्कृष्ट बालक रूप कृषण (षोडश वर्षीय युवक कृष्ण )। गिरिसुन्दरी पहाड़ी स्त्री । दरी कंदरा। भावार्थ-वृक्षों के नवीन पत्ते देखकर ( बसंतागमन से उद्दीपन पाकर ) युवक कृष्ण की ओर अनुरागिता होकर, वह सुन्दर पहाड़ी स्त्री, कंदराओं में खेल खेलने के लिये गई। इस में तीसरे पद में यमक नहीं, शेष तीनों में है)।