पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/३८१

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पंद्रहवाँ प्रभाव ३७७ (द्वतीय पद रहित) मूल-परमा-नद पर-मानदहि देखत बन उपकंठ । यह अबला अब लागिहै मनुहरि हरि के कंठ ॥१५॥ शब्दार्थ-परमानद = सुन्दरता के नद (अति सुन्दर ) । पर मानद =औरों को मान देनेवाले। उपकंठ निकट, किनारे । मन हरि-मन को हरण करके । भावार्थ-सुन्दरता को नद और औरों को सम्मान देनेवाले (कृष्ण) को बन के किनारे (एकांत में) देखकर, यह अबला कृष्ण का मन हर कर अब उनके कंठ से लगेगी। नोट-इसके दूसरे पद में यमक नहीं है। शेष तीनों में है। (प्रथमपद रहित) मूल-जूझि गयो संग्राम में, सूरज सूरज लेखि । दिवि-रमनी रमनीय तजि, मूरति रति सम देखि ॥१६॥ शब्दार्थ-सूरज = ( सूर+ज) शूर का पुत्र अर्थात शूर ( स्वयं सुभट)। दिवि रमनी-अप्सरा (पुंश्चली ) । रमनीय इधर उधर घूमने वाली। (विशेष ) कोई दूती संध्या होने के बाद नायक को नायिका से मिलाना चाहती है, अतः वह नायक से कहती है:- भावार्थ-हे 1( रति संग्राम में अजेय) अब सूर्य को संग्राम में जूझा हुआ समझ कर (सूर्यास्त हो चुका है, अतः) इस इधर उधर घूमने वाली पुंश्चली को छोड़कर, चल कर उस रति समान मूर्तिवाली (अति प्रेमिनी और असूर्यम्पश्या -क्यों कि वह दिन में कहीं बाहर नहीं निकलती है) नायिका को देखो (चल कर उससे मिलो)। इसके प्रथम चरण में यमक नहीं है, शेष तीनों में है।