पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/३८५

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302 पंद्रहवां प्रभाव (चतुष्पाद सन्ययेत) मूल-नर लौं क हिं राखत सदा, नरपति श्री रघुनाथ । नरकनिवारण नाम जग, नर बानर को साथ ॥ २५ ॥ शब्दार्थ नर कपूर । क- (सं०क) सुख । नरपति- राजा। नर= ( चौथे चरण में ) शिव । भावार्थ-श्री राम राजा प्रजा के सुख की कपूर की तरह रक्षा करते हैं ( जैसे कपूर यत्न से न रक्खा जाय तो वह उड़ जाता है इसी प्रकार राम राजा अपनी प्रजा को सुखी रखने का यत्न करते हैं) और जग में सब जानते हैं कि उनका नाम नरक से बचाने वाला है। और श्राप हैं कैसे कि शिव से लेकर बानरों तक का साथ करते हैं (बड़े छोटे सब से आसानी से मिलते हैं )। नोट---इसके चारो चरणों के श्रादि में 'नर' शब्द है अतः यमका (यमक के भेद) मुल-सुखकर दुखफर भेद है, सुखकर वरने जान । यमक सुनौ कबिराय अब, दुखकर करौं बखान ॥ २६ ॥ भावार्थ---यमक के पुनः दो भेद कहते हैं-(१) सुखकर (सरल) (२) दुखकर ( कठिन)। केशव कहते हैं कि ऊपर जितने यमक कहे गये उन्हें सुखकर जानो। अब आगे दुखकर यमक कहते हैं। मूल-मान-सरोवर आपने, मानस मा नस चाहि । मानस-हरि के मीन को, मानस बरनै नाहि ॥ २७ ॥