पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/३८७

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पंद्रहवाँ प्रभाव क्योंकि श्रीराम जी राजाओं के भूषण ( सर्व श्रेष्ठ राजा ), देवताओं में सर्वाधिक दिब्य ज्योतिधारी और समस्त जगत के ईश हैं। (पुनः) भूल-राजराज सँग ईश द्विजराज राज सनमान । विष बिषधर अरु सुरसरी, विष विषम ल उर आन ॥२६॥ शब्दार्थ-राजराज= कुबेर । ईश = शिष । द्विजराज= चंद्रमा। राजसनमान = राजाशों द्वारा आदर। विषधर = सर्प । सुरसरीविष = गंगा जल । विषम जोड़ । न उर धान = मत समझो। भावार्थ-शिव के संग में कुवेर हैं, चंद्रमा है, के राजाओं से सम्मानित भी है (ब डेबड़े राजा शिव का पूजन करते हैं) विष है, सर्प है, और गंगा जल भी है, इन वस्तुओं को देख कर बेजोड़ की बात मत समझो अर्थात् शिव का समाज वा उनका रूप असभ्य वा असौम्य नहीं कहा जा सकता। नोट--इस दोहे में यति भंग दोष है, पर अलंकार निर्वाह के हेतु हुआ है, अतः क्षम्य है। यह दोष दोष न माना जायगा। (पुनः) मुल-प्रमान भान नाचही। अमान मान राचही। समान मान पावही । बिमान मान धावही॥ ३०॥ शब्दार्थ-मान = (प्रथम चरण में) ताल । मान- (दूसरे चरण में) ज्ञान । मान = ( तीसरे चरण में) प्रादर! चौथे चरण में ) अहंकार । श्रमान हह । भावार्थ--( कोई गुरु अपने अहंकारी शिप्य को समझाता है) तू अपनी ताल के अनुसार नाचता है, और उसी को तू