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प्रिया-प्रकाश


नहीं लगते, और शुभवर्ण (श्रुतिमधुर वर्ण अथवा रस के अनुकूल वर्ण ) को ढूहता रहता है २--(व्यभिचारी पक्ष) व्यभिचारी जन रखूब सोच बिचार कर चाल चलता है, अन्य जन सोते रहे और शोर न हो ऐसी ही स्थिति उसे भाती है ( उसके कार्य के अनुकल पड़ती है) और सुन्दर रंग वाली (चपक वर्णी वा सुवर्णगी नायिका ) नायिका को खोजता रहता है। ३-( चोर पक्ष )-खूब सोच समझ कर पैर रखता है ( दरे पावों चलता है जिससे कोई पैर की आहट न सुनले ) उसे अन्यजनों की नींद ( निद्रा तो भाती है पर शोर गुल नहीं भाता। और सुवर्ण (सोना, धन ) ही खोजा करता है। ( विशेष)--बड़ा सुन्दर श्लेष अलंकार है ( देखो प्रभाव ११ छंद २०२९) मूल-राजत रच न दोष युत कविता बनिता मित्र । बुंदक हाला परत ज्यों गगाघट अपवित्र ॥ ५॥ भावार्थ-कविता, स्त्री, और मित्र ये तीनों स्वल्प दोष से भी शोभा नही पाते। जैसे एक बूंद मदिरा से घडाभर गंगा- जल अपवित्र हो जाता है, वैसे ही अल्प दोष से ये तीनों निन्दनीय हो जाते हैं। मूल-बिन न नेगी कीजिये मूढ़ न कीजै मित्त । प्रभु न कृतन्नी सेइये दूषण सहित कवित्त ॥ ६ ॥ शब्दार्थ -नगी धन सम्पत्ति का प्रबंधकर्ता। भावार्थ-ब्राह्मण को धन सम्पत्ति का प्रबंधक न करो, नूद